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पृष्ठ:अंधकारयुगीन भारत.djvu/३७३

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( ३४५) ६५८०. शिवस्कंद वर्मन् जिस समय युवराज था, उस समय उसने कदाचित् उप-शासक की हैसियत से ( युव-महाराज भारदा- यसगोत्तो पल्लवानाम् शिवस्कंद-वम्मो-एपिग्राफिया इंडिका, खंड ६, पृ०८६) अपने निवास-स्थान कांचीपुर से एक भूमि-दान के संबंध में एक राजाज्ञा प्रचलित की थी । जो भूमि दान की गई थी, वह आंत्र पथ में थी और वह आज्ञा उसके पिता के शासन-काल के दसवें वर्ष में धान्यकटक नामक स्थान के अधिकारी के नाम प्रच- लित की गई थी। दान संबंधी उस राजाज्ञा से सूचित होता है कि दूसरी पीढ़ी में पल्लवों का राज्य दूसरे तामिल राज्यों को दबा लेने के कारण इतना अधिक बढ़ गया था कि वह शिवस्कंद वर्मन की उच्च अभिलाषा के अनुरूप हो गया था। धर्ममहाराजाधिराज शिव. स्कंद वर्मन ने अपने पिता को "महाराज बप्प स्वामिन्” (सामी) लिखा है जिससे सूचित होता है कि उसका पिता अपने प्रारंभिक जीवन में एक सामंत मात्र था और अपने वंश में सबसे पहले शिवस्कंद वर्मन् ने ही पूरी राजकीय उपाधि धारण की थी। उसके पिता ने दस वर्प या इससे कुछ अधिक समय तक शासन किया था क्योंकि युव-महाराज शिवस्कंद वर्मन् ने जो दान किया था, वह अपने पिता के शासन-काल के दसवें वर्ष में किया था । १. एपिग्राफिया इडिका, खंड १, पृ० ६ में कहा गया है कि बप्पा ने सोने की करोड़ों मोहरे लोगों को बाँटी थीं; और यह उल्लेख वास्तव में उसके अश्वमेध यज्ञ के संबंध में होना चाहिए। मिलायो चाटमूल प्रथम का वर्णन, एपिग्राफिया इंडिका, खंड २०, पृ. १६ । एपि० इं० १.८ से पता चलता है कि उसका पुत्र अपने श्रापको "पल्लवों के वंश का" कहता था। एपिग्राफिया इंडिका ६, ८२ ।