( ३४६) जान पड़ता है कि उसका पिता नागों का सामंत था और उसने इक्ष्वाकुओं की सु-संघटित और व्यवस्थित सरकार या राज्य का उत्तराधिकार प्राप्त किया था, क्योंकि इन दोनों प्राकृत ताम्रलेखों और उसके पुत्र के तथा इक्ष्वाकुओं के दूसरे लिखित प्रमाणों से यही बात सिद्ध होती है। ६ १८१. वीरवर्मन् और उसका पुत्र स्कंदवर्मन द्वितीय भी प्रवरसेन प्रथम के सम-कालीन ही थे। स्कंदवर्मन् द्वितीय के समय में पल्लव दरबार की भाषा प्राकृत से बदलकर संस्कृत हो गई थी। उसकी पुत्र-वधू ने जो दान किया था, वह उसके शासन- काल में ही किया था ( एपिग्राफिया इंडिका, खंड ७, पृ० १४३) और उसका उल्लेख उसने प्राकृत भाषा में किया है। परंतु स्वयं स्कंदवर्मन ने (एपि० इं०, १५) और उसके पुत्र विष्णुगोप ने संस्कृत का व्यवहार किया है। और संस्कृत का यह प्रयोग उसके बाद की पीढ़ियों में बराबर होता रहा था। यदि कांची का युव- महाराज विष्णुगोप (इंडियन एंटिक्वेरी, खंड ५, पृ०५०-१५४ ) वही समुद्रगुप्तवाला विष्णुगोप हो-और ऐसा होना निश्चित जान पड़ता है तो हमें इस बात का एक और प्रमाण मिल जाता है कि राजाज्ञाओं की सरकारी भाषा के इस परिवर्तन के साथ वाकाटकों का विशेष संबंध था और वाकाटक लोग इस भाषा- परिवर्तन के पूरे पक्षपाती थे। वाकाटक अभिलेखों के भार-शिव वर्णन की ही विष्णुगोप ने भी नकल की है । यथा- यथावदाहृत अनेक- अश्वमेधानाम् पल्लवानाम् । १. पृथिवीपेण और उसके उत्तराधिकारियों के शिलालेखों में जो वाकाटक इतिहास-लेखनवाली शैली पाई जाती है, वह बिलकुल साँचे
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