(३४७ ) अर्थात्-पल्लव लोग जिन्होंने पूर्ण विधानों से युक्त अनेक अश्वमेध यज्ञ किए थे। इस प्रकार संस्कृत का व्यवहार समुद्रगुप्त की विजय से पहले से ही होने लग गया था। ६१८२. प्रारंभिक पल्लवों का वंश-वृक्ष स्वयं उन्हीं के उन ताम्रपत्रों से प्रस्तुत किया जा सकता है जिनकी संख्या बहुत अधिक है। करीब करीब हर दूसरी प्रारंभिक पल्लवों की पीढ़ी का हमें एक ताम्र-लेख मिलता है। वंशावली उन लोगों में यह प्रथा सी थी कि सभी लोग अपने ऊपर की चार पीढ़ियों तक का वर्णन कर जाते थे। इस नियम का एकमात्र अपवाद शिव- स्कंद वर्मन् की राजाज्ञाएँ हैं, और इसका कारण यही है कि उसके समय तक राजाओं की चार पीढ़ियाँ ही बनी हुई थीं। यहाँ काल-क्रम से उनके दानों की सूची दे दी जाती है और साथ ही यह भी बतला दिया जाता है कि उन दोनों के संबंध की आज्ञाएँ किन लोगों ने प्रचलित की थीं। मयिदवोलु, जिसके संबंध की राजाज्ञा कांचीपुर से युवमहाराज एपि० इं०६. (शिव) स्कंदवर्मन् (प्रथम) ने ८४. प्राकृत में। (अपने पिता के शासन के १० वें वर्ष में ) प्रचलित की थी। में ढली हुई शैली है और इससे सिद्ध होता है कि वह शैली साम्राज्य- भोगी वाकाटकों के समय से चली आ रही थी। १. यह एक अद्भुत बात है कि प्रारंभिक पल्लवों का एक भी अभिलेख या पत्थर नहीं पाया गया है ।
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