( ३६० ) विष्णुगोप प्रथम के उपरांत इस वंश में यह प्रथा चल पड़ी थी कि प्रत्येक पूर्व-पुरुष को "महाराज" कहते थे, फिर चाहे वह पूर्वपुरुष पल्लव राज-सिंहासन का उत्तराधिकारी हुआ हो और चाहे न हुआ हो, जैसा कि स्वयं विष्णुगोप प्रथम के संबंध में हुआ था। विष्णुगोप प्रथम को उसके लड़के ने तो केवल "युव- महाराज' ही लिखा था, पर उसके पोते ने उसे "महाराज" की उपाधि दे दी थी। इसी प्रकार कुमारविष्णु तृतीय ने अपने ताम्र- लेखों में अपने प्रत्येक पूर्वज को "महाराज" लिखा है। जब तक हमें उनके दान संबंधी मूल लेख न मिल जायँ, तब तक शासकों की गौण शाखा के रूप में भी हम उनके उत्तराधिकार के संबंध में कुछ भी निश्चय नहीं कर सकते। ताम्रलेखों के प्रमाण पर केवल यही कहा जा सकता है कि केवल एक ही शाखा शासक के रूप में दिखाई देती है और अभी तक हमें इस वंश की केवल एक से अधिक शासक शाखा के अस्तित्व का कोई प्रमाण नहीं मिला है। केवल विष्णुगोप प्रथम ही समुद्रगुप्त का सम-कालीन हो सकता था और सिंहवर्मन द्वितीय के समय में यह विष्णुगोप प्रथम बालक शासक के अभिभावक के रूप में राज्य के कारबार देखता था और कांची की सरकार का प्रधान अधिकारी था, और इसीलिये वह "कांचेयक" कहा जायगा । इस वंशवाले अस्थायी रूप से स्थानीय शासक या गवर्नर रहे होंगे, जिन्हें उन दिनों "महाराज" कहते थे अथवा लेफ्टिनेंट गवर्नर रहे होंगे जो "युव-महाराज" कहलातेथे। ६१८४ क. वीरकूर्च कुमारविष्णु ने एक अश्वमेध यज्ञ किया था, अर्थात उसने इस बात की घोषणा कर श्रारंभिक पल्लव राजालोग दी थी कि मैं इक्ष्वाकुओं का उत्तराधिकारी हूँ। फिर शिव-स्कंदवर्मन ने भी अश्वमेध यज्ञ किया था। जान पड़ता है कि वीरवर्मन के हाथ से
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