( ३६१) कांची निकल गई थी' और कुमारविष्णु द्वितीय को फिर से उस पर विजय प्राप्त करके उसे अपने अधिकार में करना पड़ा था । बेलुरपलैयम्वाले ताम्रलेखों में शिवस्कंद वर्मन को राजा या शासक नहीं कहा गया है। जान पड़ता है कि उसने युवराज रहने की अवस्था में अपने पिता की ओर से कांची पर विजय प्राप्त की थी। पिता और पुत्र दोनों को चोलों के साथ और कदाचित् कुछ दूसरे तामिल राजाओं के साथ भी युद्ध करना पड़ा था । स्कंदवर्मन द्वितीय ने फिर से कांची में रहकर राज्य करना प्रारंभ किया था । उसके समय में गंग लोग भी और कदंब लोग भी तामिल सीमाओं पर सामंतों के रूप में नियुक्त किए गए थे (६१८८ और उसके आगे)। उन सबकी उपाधियाँ बिलकुल एक ही सी हैं जिससे सूचित होता है कि वे सभी लोग वाकाटक सम्राट के अधीन महाराज या गवर्नर के रूप में शासन करते थे। वे लोग जो "धर्म महाराज" कहे जाते थे. उसका अभिप्राय यह जान पड़ता है कि वे लोग सम्राट के द्वारा नियुक्त किए गए थे, और वे वाकाटकों द्वारा स्थापित धर्म-साम्राज्य के अधीन थे। १. उस पंक्ति में यह नाम कहीं दोहराया नहीं गया है। जान पड़ता है कि वह अशुभ या अशकुन-कारक और विफल समझा जाता था। परंतु फिर भी वीरवर्मन् की वीरता का अभिलेखों में उल्लख है ( वसुधातलैकवीरस्य )। २. गृहीतकांची नगरस्ततोभूत् कुमारविष्णुस्समरेषु जिष्णुः ( श्लोक ८)-एपि० इं० २, ५०८ । ३. अन्क्वाय नभश्चन्द्रः स्कन्दशिष्यस्ततोभवत् , विजाना घटिका राज्ञस्सत्यसेनात् जहार यः । ( उक्त में श्लोक ७) सत्यसेन कदाचित् कोई चोल या दूसरा पड़ोसी तामिल राजा था।
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