पृष्ठ:अजातशत्रु.djvu/१२७

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मदूसरा। लोग कहते हैं कि 'घन्य है, गौतम पड़े महात्मा है, मरी हुई स्री को जिला दिया ।' मनुष्य के मुख में मी सो साँपों की तरह दो जीमें हैं। च घेतू कोई घुला रहा है।" [बाता है] [रानी शक्तिमती और कारायण का प्रवेग] रानी-"क्यों सेनापति, तुम तो इस पद से बड़े सन्तुष्ट होगे? __ अपने मासुन की दशा तो अब तुम्हें मूल गई होगी ?" कारायण-"नहीं रानी ! वह भी इस सन्म में भूलने की बात है। क्या फलें, मल्लिकादेवी की भाज्ञा से मैंने यह पद ग्रहण किया है। किन्तु हृदय में पड़ी याला घफ रही है।" ___रानी-"पर तुम्हें इसके लिये चेष्टा करनी चाहिये। न कि त्रियों की तरह रोने से काम योगा। विरुवक ने तुम से मेंट फी थी।" ___ कारायण-"वदे साहमी है ? मुझसे कहने लगे कि अभी मैंने एक हत्या की है और उससे मुझे यह धन मिला है सो सुम्हें गुम सेना सगठन के लिये देवा हूँ। और मैं फिर उघोग में जाता हूँ। पदि तुमने धोखा दिया सो पिचारलेना शैलेन्द्र किसी पर दया करना नहीं जानता। उस समय सो मैं केवल यात ही सुनकर स्तम्ध रह गया। यस स्वीफार सुचफ सिर हिला दिया-रानी ! उस युवक को देखकर मेरो पास्मा काँपती है।" __रानी-"अच्छा वो प्रयन्ध ठीफ फरो। और सहायता में गी। पर यहाँ मी अच्छा खेल हुभा my