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पृष्ठ:अजातशत्रु.djvu/१४१

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मातीसरा बाजिरा-(वाली निकाल कर जगला स्रोलसी है। अमाव पाहर पाता है) "अब तुम आ सफते हो। पिता की सारी मिडफियाँ मैं सुन नगी । उनका समस्त क्रोघ मैं अपने पल पर वहन करूँगी राजकुमार ! भप तुम मुक हो, जाओ।" घजाव.-"यह सो नहीं हो सकता। इस उपकार का प्रतिफल मुम्हें अपने पिता से तिरस्कार और भर्मना ही मिलेगी सुन्दरी ! सो, अत्र यह मुम्हारा चिरवन्दी मुक्त होने की चेष्टा भीन फरेगा !" बाजिरा- 'प्रिम राजकुमार ! तुम्हारी इच्छा, किन्तु फिर मैं अपने को राक न सकूगी और इदय की दुर्षलवा या प्रम की सवलता हमें ध्यथित फरेगी।" - अजास-~-"राजकुमारी ! तो हम लोग एफ धूसरे को प्रेम करने के प्रयाग्य है, ऐसा कोई मूर्य भी नहीं कहेगा ।" पाजिरा-तब प्राणनाथ ! मैं अपना सर्वस्व सुम्हें समर्पण करती हैं। (अपनी मामा पानाती) । अजात-"मैं अपने समेत उसे तुम्हें लौटा देना हूँ प्रिये । इम तुम अमिन है। यह जगली हिरन इस स्वर्गीय गीत पर चौकडी भरना भूल गया है। भव यह सुम्हारे प्रेम-पाश में पूर्ण रूप से यह है (अंगूठा पहलाता है) (रापक्षका सासा पोश)