सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:अजातशत्रु.djvu/१४७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

- महतीसरा। । श्यामा-"और मैं तुम्हें सा समझने पर भी पाइने लगी । यी, इसना तुम्हारे ऊपर मेरा विश्वास था। सब मुझे नहीं विदित | था कि तुम फोशल के राजकुमार हो ।" । मलिका-"यदि सुम प्रेम का प्रविदान नहीं जानते हो यो व्यर्थ एक सुकुमार नारी-दय को लेकर उसे पैरों से क्यों । रौदवे हो। विरुसका क्षमा माँगो, यदि हो सके तो इसे अपनाओ।" । श्यामा-"नहीं देषी ! अव में आपकी सेवा करूँगी, राममुस्स मैं बहुत भोग घुफी हैं। अब मुझे राजकुमार विरुद्धक का सिंहा- सन भो अभीष्ट नहीं है, मैं तो शैलेन्द्र डॉक को पाहती थी।" विरुद्धम-"श्यामा, भय मैं सब तरह से प्रस्तुत हूँ और शमा भी मांगता हूँ। श्यामा-"अब मुम्हें, तुम्हारा हृदय अभिशाप देगा, यदि मैं मा फर मी यूँ । फिन्तु नहीं विरुद्धक । अभी मुझ में इतनी सहन शीलता नहीं है। ___ मशिका-"राजकुमार नाभो ! कोशल लौट जामो और यदि तुम्हें अपने पिता के पास जाने में उर लगवा हो वो में तुम्हारी औरतमा मांगेंगी। मुझे विश्वास है कि महाराज मेरी पाव मानेंगे। विस्यक दयपाला! वारता की मूर्ति ! मैं किस प्रकार तुमसे समा मागू, फिस परह सुमसे तुम्हारी पा से अपने प्राण पचाऊँ। देवी ऐसे भी जीव इमी ससार में भी तो यह भ्रम-