पृष्ठ:अजातशत्रु.djvu/१७५

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महतासरा! धासपी-"क्या । थिम्यसार-"कि मैं मनुष्य हूँ और इन मायाविनी त्रियों के हाय का खिलौना हूँ ___ वासषी-"तब तो महाराज प्रापको मैं जैसा फहसी हूँ पैसा ही कीजिये । क्योंकि नहीं सा पाप को लेकर मैं नहीं खेलूगी ।" विम्बसार-"सप तो तुम्हारी विजय हुई वासपी । क्या मजाव । पुत्र होनेपर पिता के स्नेह का गौरव सुम्हें विदित हुमा- फैसी उल्टी पास हुई।" पुष्पीक-(नग्जित होकर सिर मुका लेता है।) पचा०-(प्रवेश फर के ) पिताजी, मुझे यहुत दिनों से मापने मुछ नहीं दिया है, पौत्र होने के उपलक्ष में वो मुझे कुछ अमी पीजिये, नहीं तो मैं उपद्रव मचाकर इस कुटी को स्पोद डालूंगी !" । बिम्बमार-'येटा पचा। महा सू भी आगई ! पग्रा०-"हाँ पितामी-यह मी भाई है। क्या मैंहीं ले आऊँ ? धासवी-"पज पगली मेरी सोने सी बहू । इस तरह क्या जहाँ सहाँ जायगी-मिसको देखना हो यही पलो!" पिम्पसार-"तुम सप ने सो पाकर मुझे पाचर्य में गन दिया । प्रसन्नता से मेरा जी पपरा उठा है। पद्मा-"वो फिर मुझे पुरस्कार दीजिये। पिम्पसार-"क्या लेगी पगली १० पग्रा--पहले छोटी माँ को मइया को जमा कर लीगिये। क्योंफि इनकी यापना पहिले की है। फिर 7