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पृष्ठ:अजातशत्रु.djvu/५९

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मा पहिला -(जीरा प्रमेश) जीयक-"महाराज को जय हो" विम्बसार-"जीवक यह कैसा परिहास ? यह सम्योधन भव क्यों ? यहाँ तुम कैसे पाये ?' जीयर-"यह अभ्याम का दोप है। मैं भीमान फ माथ ही रहूँगा। भव मुझे वह पुरानी गृहम्पी अग्छी नहीं लगती।' विम्बसार-स अकारण नैराग्य का फोई अर्थ भी है " जीपन.-"कुछ नहीं राजाधिराज । और है तो यही कि जिस प्रात्मीय के लिये निष्फपद भाव से मैं परिभम फरता हुआ सुम्य देने का प्रपन्ध फरता हूँ ये भी विद्रोही हो आते हैं फिर यह मय क्यों ?" । वासी-"महाराज, जीरन की मारी क्रियाओं का अन्त 1 किवल अनन्त विश्राम में है। इस वाह्य लपल का उद्देश प्रान्तरिक । शान्ति है, फिर जब उसके लिये ज्याकुज पिपासा जग छे तप उसमें क्या देर " जावक-"यही विचार कर में मोम्बामा की शरण पाया स्पोकि समुद्रान की पान मुझे नहीं रुचीं। अरष्ट मोष कर मैं भी मापका अनुगामी हो गया है।" दिम्यसार-"क्या मात्र मोघ कर, तुम अकर्मण्य हाफर मे नरज पैठ जाना चाहते हो ?' । जीपक-"नही महार जपष्ट हो मेरा महारा? नियति की होरी पका कर में नियम में चमकता है। क्योंकि मुझे विश्वाम है कि जो होना है वह तो होवगा, फिर कादर फ्या