अजातशत्रु। वन-फर्म से क्यों विरत रहूँ-मैं इम उन्छसाल नवीन राजशक्ति का विराधी होकर प्रापफी मेवा करन पाया हैं। वामवी-"यह तुम्हारी उदारता ह, किन्तु हम लोगों की प्रत्ति किस यात को गका है ? जो सुम व्यस्त हा " । | जीवक-'देवदत्त, निष्ठुर देवदत्त के कुचक्र स महाराज की ( जीवनरक्षा होनी ही चाहिये ". बिम्बसार-"प्राश्चर्य । यह मैं क्या सुन रहा हूँ। जीवक ! मुझे भ्रान्ति में न डालो-विप का घड़ा मरे हृदय पर न ढालो ! मला अय मेरे प्राण मे मगध मानाष्य को क्या सम्यन्ध है ? देववत्त मुझ से क्यों इतना असन्तुष्ट है।" जीवक-"युद्ध मेव फी प्रतिद्वन्दिवा अन्ध पाये है-महत्या क्षा मे एफ गर्स में गिरा रही है। उसकी यह पाया सब तफ सफल न होगी जयसक आप जीवित रह कर गौतम की प्रतिष्ठा बटाने रहेंगे, और उनी महायता करते रहेंगे।" विम्बसार--"मूर्खता है। यह देवगन की क्षुद्रता का परि- चय ३। भला आत्मयल या प्रतिमा फिमो की प्रगना फे चल मे विश्व म बड़ी होती है। अपा महारा यह ग्वय है, इसमें मेरी पच्छा वा अनिच्छा क्या है। यह रिय ज्योतिम्बम' मा की प्राम्या फो आर्पित कर रही है। देववत का विरोध, केवल उसमें तुमति देमकेगा। जीवफ-"देव । फिर भी मो इर्षा की पट्टी आँखों पर यदाते
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