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पृष्ठ:अजातशत्रु.djvu/८९

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प्रा दूसरा अलग वो फिया नहीं जा सकसा-फिर मी वाभ्य होकर उस उपवन की रक्षा पूर्णरूप से होनी चाहिये ।" __सीसरा सभ्य-"क्या महाराज बन्दी बनाये जायेंगे, मैं ऐसी परिपद को नमस्कार करता हूँ। यह अनर्थ है। अन्याय है।" देवदत्त-"ठहरिये ! अपनी प्रतिमा को स्मरण कीजिये और विपय के गौरव को मत भुला दीजिये । समुद्रदत्त सम्राट विम्बसार को बन्दी नहीं बनाना चाइसा, किन्तु नियन्त्रण चाहता है । सो भी किसपर, केवल वासबीटेगी पर, जो कि मगध को गुम शत्रु हैं। और इसका कोई दूसरा सुगम उपाय नहीं। यह किसी पर प्रकट करके सम्राट का नियवर म किया जाय । फिन्तु युद्धकाल की राज मर्यादा कह कर अपना कार्य निकाला माय । क्योंकि ऐसे समय में राजकुल की विशेप रक्षा होनी चाहिये ।" तीसरा सभ्य-"तब मेरा कोई विरोध नहीं । भजात-" फिर, भापलोग पाज की इम मन्त्रमा से सहमत है। सव-"हम सम को म्वीकार है। अमाव०-"तपास्तु । (सप मागेर) पट परिवर्तन ।