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सोम-लता
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ईशान देव (शिव) मे लीन हो जाता है। बाक़ी के जो सोम हैं उनके रस को तांबे, मिट्टी या लाल चमड़े के पात्र मे निचोड़े। शूद्रो के लिए यह रस नहीं है। ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य, इन्ही तीनो को इसे पीना चाहिए। सोम-रसायन पिये जब चार महीने हो जाय तब पौर्णमासी के दिन किसी पवित्र स्थान में ब्राह्मणो की पूजा कर के मङ्गलपाठ-पूर्वक उस घर के बाहर निकले और फिर मजे मे जहाँ चाहे घूमे फिरे।

जो मनुष्य औषधियों के स्वामी सोम का सेवन करता है उसका नया शरीर, दस हजार वर्षों तक बना रहता है। आग, पानी अस्त्र, शस्त्र और विषाद एक भी उसे बाधा नहीं पहुँचा सकते-उसको मारने मे वे कोई समर्थ नहीं होते। साठ वर्ष की उम्र वाले महामदोन्मत्त हजार हाथियो का इतना बल उसके शरीर में आ जाता है। उत्तर कुरु ही नही, क्षीरसागर और अमरावती तक वह बेखटके जा सकता है। कोई उसका रोकने वाला नहीं। अर्थात् जहाँ वह चाहे जा सकता है। रूप उसका कन्दर्प तुल्य हो जाता है; कान्ति उसकी चन्द्रमा के समान हो जाती है। उसके शरीर में ऐसी अपूर्व धुति आ जाती है कि उसे देख कर प्राणिमात्र परमानन्द में मग्न हो जाते है। उसको सांगोपाङ्ग वेद भी आ जाते है। वह देवताओ के समान हो जाता है। उसका कोई सङ्कल्प व्यर्थ नहीं जाता। जो चाहे कर सकता है।

जितने प्रकार के सोम है सब मे पन्द्रह ही पत्ते होते है। वे शुक्ल पक्ष के १५ दिनों मे एक एक करके पैदा होते हैं और कृष्ण