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सोम-लता
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आयुर्वेद-विषयक बातो को छोड़ कर अब सोम-विषयक वैदिक बातो का विचार कीजिए। वैदिक समय में सोम का बड़ा आदर था। ऋषि मुनि सब उसे प्रेम से पीते थे। वह बड़ी ही पवित्र चीज़ मानी जाती थी। देवताओं को उसका भोग लगाया जाता था। उसे खुद भी देवत्व प्राप्त था। वह यज्ञों में काम आती थी। ऋग्वेद के नवे मण्डल में सोम की बड़ी बड़ी स्तुतियां है। यजुर्वेद के उन्नीसवें अध्याय में सौत्रामणि यज्ञ का विषय है। वहां सोम की बड़ी ही महिमा गाई गई है। देवता के समान उसकी स्तुति की गई है। उससे वर मांगे गये है। परन्तु उसके साथ ही उसके मादक गुण की गाथा भी गाई गई है। यहां तक कि 'सुरा त्वमसि शुष्मिणी' कह कर वह सुरा-सोम के नाम से अभिहित किया गया है। ब्राह्मण-ग्रंथों मे तो सुरा-साम बनाने की विधि भी लिखी हुई है। उससे सूचित होता है कि सोमलता के रस में जौ, चावल, त्रिफला, शुण्ठी, पुनर्नवा, अश्वगन्धा, पिप्पली आदि चीजें डालकर रखी जाती थी। तब उसमें मादकता आ जाती थी। वही रस छान कर पिया जाता था।

विद्वानो की राय है कि यही सोम-सुरा पानकरनेवाले सुर नाम से आख्यात हुए, और जिन्हें उसका पीना पसन्द नहीं था, अथवा जो बहुत कम पीते थे, वे असुर कहलाये। सुर, प्राचीन आर्यों के पूज्य हुए और असुर प्राचीन पारसियो के। यजुर्वेद के उन्नीसवें अध्याय मे जिस सुरा का वर्णन है वह यदि एक प्रकार का मद्य ही था, जैसा कि वैदिक मंत्रो से सूचित होता है, तो उसे