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बौध्दकालीन भारत के विश्वविद्यालय
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में बहुत प्राचीन काल से चली आई है। गृहस्थ लोग गाँव, खेत, बाग़, वस्त्र अथवा नक़द रुपये इन विद्यालयो को दान करते थे। इसीसे उनका सम्पूर्ण खर्च चलता था। इस प्रकार विद्यार्थियों का बहुत समय और मानसिक शक्ति पेट-पूजा के लिए धनोपार्जन करने में नष्ट होने से बच जाती और वे इस समय और शक्ति को विद्याध्ययन में लगाते थे। इसका फल यह होता था कि गम्भीर विचार वाले और मननशील विद्वान इन विद्यालयों से निकलते थे। इसीसे वे लोग बौद्ध धर्म, संस्कृत-साहित्य और संसार का अनन्त उपकार कर गये हैं।

नालन्द के विश्वविद्यालय में आजकल की तरह परीक्षायें न होती थी। किन्तु विद्यार्थियों की योग्यता शाखार्थ द्वारा जांची जाती थी। विद्यालय में भर्ती होने के नियम भी बड़े कड़े थे। जोललोग दाखिल होने के लिए आते थे उनसे द्वारपंडित कुछ कठिन प्रश्न करता था । यदि वे उनका उत्तर दे सकते थे तो भीतर जाते पाते थे, नहीं तो लौट जाते थे। इसके बाद शास्त्रार्थ के द्वारा उनकी योग्यता की परीक्षा ली जाती थी। जो उसमे भी अपनी योग्यता प्रमाणित कर सकते थे वही विद्यालय में दाखिल हो सकते थे। बाकी अपना-सा मुँह लेकर अपना रास्ता लेते थे। मतलब यह कि अच्छे बुद्धिमान, विद्वान्, योग्य और गुणवान् मनुष्य ही विश्वविद्यालय मे प्रवेश करते थे।

द्वारपंडित के पद पर वही नियत किया जाता था जो ऊँचे दर्जे का विद्वान् होता था। यह पद उस समय बहुत प्रतिष्ठित