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अतीत-स्मृति
 


भगवान बुद्ध गये।*[१] उन्होने वहाँ के निवासियों को बौद्ध बनाया। लङ्का का जलवायु अच्छा है। सब्जी बहुत होती है। राजधानी के उत्तर में एक बड़ा ऊचा स्तूप है। समीप ही एक संघाराम भी है, जिसमें ५००० साधु रहते हैं।"

फ़ा-हियान लङ्का में दो वर्ष रहा। उसे स्वदेश छोड़े बहुत वर्ष हो गये थे। इससे उसने चीन लौट जाना चाहा। उसी समय एक व्यापारी ने उसे चीन का बना हुआ एक पङ्खा भेंट किया। अपने देश की बनी हुई वस्तु देख कर फा़-हियान का जी भर आया। उसके नेत्रो से अश्रुधारा बह निकली। अन्त में उसे स्वदेश लौट जाने का एक साधन भी प्राप्त हो गया। एक जहाज़, दो सौ यात्रियों सहित, उस ओर जाता था। वह भी उसी पर बैठ गया। जहाज को हलका करने के लिए खलासी जहाज पर लदी हुई चीजों को समुद्र में फेंकने लगे। बहुत माल-असबाब फेंक दिया गया। फा-हियान ने अपने सारे बर्तन तक समुद्र में, इस डर के मारे, फेंक दिये कि कहीं इनके मोह में पड़ने के कारण लोग उसकी अमूल्य पुस्तकें और मूर्तियां समुद्र के हवाले न कर हैं। तेरह दिन की कठिन तपस्या के बाद, एक छोटा सा टापू मिला। वहां जहाज की मरम्मत हुई। सैकड़ो कष्ट सहने पर ९० दिन बाद जहाज जावा-द्वीप में पहुँचा। जावा में उस समय बौद्ध और ब्राह्मण-धर्म, दोनों का, प्रचार था।

फ़ा-हियान जावा में पाँच महीने रहा। तत्पश्चात् वह


  1. * भगवान बुद्ध लङ्का कमी नहीं गये।