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अतीत-स्मृति
 

यद्यपि धर्म-युद्ध हमारे यहां श्रेष्ठ माना गया है तथापि कभी कमी हमें शत्रु के देश को उजाड़ना और उसकी प्रजा को कष्ट भी पहुँचाना पड़ता था। यह उस दशा में करना पड़ता था जब शत्रु अपने किले के भीतर रह कर लड़ता था। मनु ने एक स्थान पर कहा है-

उपरुध्यारिमासीत राष्ट्रं चास्योपपीडयेत्।
दूषयेञ्चास्य सततं यवसान्नोदकेन्धनम्॥
भिन्द्याच्चैव तड़ागानि प्राकारपरिखास्तथा।
समवस्कन्दयेञ्चैनं रात्रौ वित्रासयेत्तथा॥
अ ७०, श्लोक १९५-१९६

ठीक वही बात शुक्राचार्य्य ने भी कही है। उनके मन में शत्रु की सेना के लिए जल, भोजन आदि पहुँचाना भी रोक देना नीति के विरुद्ध नहीं। शुक्राचार्य वो यहां तक कहते हैं कि जो बली होगा वही उद्योग के द्वारा सब कुछ कर सकेगा। निर्बल केवल अपने दुर्भाग्य के नाम पर रोता रहेगा।

रामायण और महाभारत से यह सिद्ध है कि हमारे यहाँ धार्मिकता और अधार्मिकता का पक्ष केवल प्रस्ताव रूप में ग्रहण किया जाता था। रामायण में रामचन्द्र के द्वारा ताड़का का वध पाप है, क्योंकि वह स्त्री थी। पर विश्वामित्र ने उसके दुष्कार्यों का वर्णन करके यह साबित किया है कि रामचन्द्र को उसे मारने से पाप नहीं लगा। रामायण के उत्तरकाण्ड में भी एक ऐसी ही घटना का वर्णन है। विष्णु और राक्षस माल्यवान के युद्ध में जो राक्षस भागते थे उन्हें भी विष्णु मार डालते थे। यह देख कर