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प्राचीन भारत में शस्त्र-चिकित्सा
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में ईसा के पूर्व चौथी-पाँचवी शताब्दी से शस्त्र-चिकित्सा का ज्ञान मौजूद था। अतएव यह न मानना कि प्राचीन आर्यों ने औषधालयों की स्थापना की थी, ठीक नहीं। सुश्रुत मे स्पष्ट लिखा है कि वैद्य की 'भेषजागार' में काष्टनिर्मित ताकों पर औषधियां आदि रखनी चाहिए। चरक-संहिता मे शुश्रूषागार, सूतिकागार आदि का बड़ा सुन्दर वर्णन है। इस सम्बन्ध में डाक्टर गिरीन्द्रनाथ ने अपनी पुस्तक में जो कुछ लिखा है वह बड़े ही महत्व का है। उन्होने औषधालयों और अस्पतालों के अस्तित्व के जो प्रमाण‌ दिये हैं वे अखण्डनीय है। राजा अशोक ने तो मनुष्यों ही के लिए नहीं, किन्तु पशुओ तक के लिए, स्थान स्थान पर, चिकित्सांलय स्थापित किये थे। उस समय ये चिकित्सालय "आरोग्यशाला" और "भेषजागार" कहलाते थे। अंगरेजी में‌ इन दोनों का अर्थ क्रमशः Hospital और Dispensary के सिवा और कुछ नहीं हो सकता।

शस्त्र-चिकित्सा करते समय रोगो को मूर्छित करना पड़ता है। मूर्छित करने के लिए सुश्रुत और चरक ने मद्यपान कराना लिखा है। कभी कभी गांजे का धुआँ सुँघा कर भी रोगी मूर्छित किया जाता था। राजा भोज की शस्त्र-चिकित्सा का वृत्तान्त भोजप्रबन्ध में है। वह भी इसी ढंग से मूर्छित करा कर की गई थी। उस सम्मोहनी ओषधि का नाम था मोह-चूर्ण।

डाक्टर गिरीन्द्र नाथ ने अपनी पुस्तक मे शस्त्र-चिकित्सा के उपयोगी शास्त्रों का खूब वर्णन किया है। आप ने चरक, सुश्रुत