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मायादेवी और डाक्टर कृष्णगोपाल दोनों ही के तलाक के मुकदमे अदालत में दाखिल कर दिए गए। मायादेवी ने पति पर अत्याचार, अयोग्यता तथा अनीतिमूलक व्यवहार के आरोप लगाए। मास्टर साहब ने क्षोभ और दुःख के कारण जवाबदेही नहीं की। मायादेवी को तलाक मिल गया। परन्तु इसपर जितना भी मायादेवी को साधुवाद, धन्यवाद और बधाइयां दी जाने लगी उतना ही उनका शोक और व्यग्रता बढ़ती गई। रह-रहकर पति की निरीह, नैराश्य-मूर्ति उनके नेत्रों में घूम जाती, पुत्री की पीड़ा से भी वह बेचैन हो जातीं। वह जितना अपने मन को प्रबोध देतीं, भावी सुख का चित्र खींचतीं, उतना ही उनका मन निराशा से भर जाता।
डाक्टर कृष्णगोपाल की तसल्ली और आदर-सत्कार उसे अब उतना उल्लासवर्द्धक नहीं दीख रहा था। तथा रह-रहकर उसे अपना घर, अपना पति, और अपनी पुत्री याद आ रही थी। वह खोई-सी रहने लगी जैसे उसके सब आश्रय नष्ट हो गए हों। उनका मन चिन्ता, घबराहट और उदासी से भर गया।
डाक्टर कृष्णगोपाल के मुकदमे में विमलादेवी ने अदालत में उपस्थित होकर जज से मनोरंजक वार्तालाप किया।
जज ने पूछा---'श्रीमती विमलादेवी, आपके पति डाक्टर कृष्णगोपाल ने आपके विरुद्ध तलाक का मुकदमा दायर किया है। आपको कुछ उज्र हो तो पेश कीजिए।'
'आप किसलिए मेरा उज्र पूछते हैं?'
'इसलिए कि आपको उज्र करने का कानूनन अधिकार है।'
'मैं एक हिन्दू गृहस्थ की पत्नी हूं। मैं अधिकार नहीं चाहती, मैं कर्तव्य-पालन करना चाहती हूं। मेरे पति जब जहां जिस हालत