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मरम्मत :: १३७
 

थी। बॉक्स और रिजर्व की तमाम सीटें खाली पड़ी थीं। अपने चारों ओर सन्नाटा देखकर पहले तो रजनी कुछ घबराई, परन्तु फिर साहस करके वह अपनी कुर्सी ज़रा आगे खींचकर बैठ गई। कौन खेल है---दोनों कुछ क्षण इसी में डूबे रहे परन्तु थोड़ी ही देर में दोनों को अपना-अपना उद्देश्य याद आ गया। खेल से मन हटाकर दोनों दोनों को कनखियों से देखने लगे। एकाध बार तो नजर बचा गए, पर कब तक? अंत में एक बार रजनी खिल- खिलाकर हंस पड़ी। उसे हंसती देख दिलीप भी हंस पड़ा परन्तु उसकी हंसी में फीकापन था।

रजनी तुरन्त ही सम्भल गई। उसने कहा---'क्यों हंसे, मिस्टर?'

'और तुम क्यों हंसी रजनी?'

दिलीप ने जरा साहस करके कुर्सी आगे खिसकाई। रजनी सम्हलकर बैठ गई। उसने स्थिर अकम्पित वाणी में कहा---'मैं तो यह सोचकर हंसी कि तुम मन में क्या सोच रहे हो, वह मैं जान गई।'

'सच, रजनी तो तुमने मुझे क्षमा कर दिया?' वह आवेश में आकर खड़े होकर रजनी कुर्सी पर झुका। उसे वहीं रोककर रजनी ने कहा---'क्षमा करने में तो कुछ हर्ज नहीं है दिलीप बाबू, मगर यह तो कहो कि क्या तुम उसी खत की बात सोच रहे हो? सच कहो, तुमने जो आज खत में लिखा है, क्या वह सच है?'

दिलीप घुटनों के बल धरती पर बैठ गया, जैसा कि बहुधा सिनेमा में देख चुके हैं। भावपूर्ण ढंग से दोनों हाथ पसारकर कहा---'सचमुच रज्जी, मैं तुम्हें प्राणों से भी बढ़कर प्यार करता हूं।'

'प्राणों से बढ़कर? यह तो बड़े आश्चर्य की बात है दिलीप बाबू, इस पर विश्वास करने को जी नहीं चाहता।'