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१४८ :: अदल-बदल
 

'जी चाहे सो कहा कर।'

'अब ऐसी-ऐसी बातें करती हो, तो चाची कैसे हुई?'

'न सही, बहनजी सही।'

'अच्छी बात है, अब मैं बहनजी कहा करूंगी, पर बाबू साहब को क्या कहना होगा।'

'जीजाजी। अब तो वह तेरे जी जा जी हो गए।'

'नहीं नहीं, ऐसा नहीं, जीजाजी बहुत बुरे हुआ करते हैं।'

'बुरे क्या हुआ करते हैं?'

'सब भांति की हंसी-दिल्लगी करते हैं। मैं उनसे हंसी-दिल्लगी करती क्या सजूंगी, बोलूंगी ही कैसे?'

'क्या वह कोई बाघ हैं? जीजाजी की मरम्मत तो सालियां ही किया करती हैं।'

'ना भई, मुझसे ऐसा न होगा, उनके सामने से मैं भाग जाऊंगी।'

'भाग कैसे जाएगी। सालो बनना क्या हंसी-खेल है, इस बार होली खेलना होगा।'

'वाह, यह भी कहीं हो सकता है।' बालिका कुछ हंसकर गर्दन टेढ़ी करके बोली और दूसरी स्त्री की गोदी में सिर छिपा लिया।

'नहीं कैसे हो सकता, होली तो खेलना ही होगा।'

बाहर पद-ध्वनि सुनकर दोनों चौंकी। बालिका ने कहा--'लो जीजाजी आ रहे हैं, अब मैं जाती हूं।'

'वाह, जाएगी कैसे? आज उनसे बातें करनी पड़ेंगी।'

'नही, नहीं, मैं जाती हूं।' बालिका उठकर भागने लगी। दूसरी स्त्री ने उसे कसकर खींच लिया और कहा--'जाएगी कहां? जीजाजी से बातें करनी होंगी।'

कमरे में स्त्री के पास किसी और को बैठा देख राजेश्वर बाहर ही ठिठक गए, वह दूसरे कमरे में जाने लगे। पत्नी ने पुकारकर