कहा--'चले आइए, यहां आपकी नई साली साहिबा हैं, और कोई नहीं।'
राजेश्वर ज़रा झिझकते हुए भीतर गए। बालिका सिकुड़कर गृहिणी की पीठ-पीछे छिप रही।
गृहिणी ने हंसकर कहा--'जीजाजी को प्रणाम भी नहीं!'
बालिका ने चुपके से हाथ जोड़कर प्रणाम किया।
राजेश्वर ने कहा--'कौन है?
'आप नहीं जानते, पड़ोस के प्रोफेसर साहब की कन्या किशोरी है, हम लोगों ने बहनापा जोड़ा है, अब यह आपकी साली और आप इसके जीजाजी हुए।'
राजेश्वर ज़रा मुस्कराए, फिर कहा--'इन्हें कुछ खिलाया-पिलाया भी है या नहीं, फल-मिठाई और लो।'
इतना कहकर राजेश्वर कमरे से बाहर निकल गए। उन्हें एक जरूरी मुकद्दमे की मिसल देखनी थी। मुवक्किल बैठक में बैठे थे। उन्होंने बालिका को देखा भी नहीं, उनके मन में कोई भाव भी उदय नहीं हुआ।
उनके जाने पर बालिका ने कहा--'बहनजी, ये तो बहुत मीठा बोलते हैं।'
'क्या रीझ गई?'
'हटो, ऐसो बातें न करो, मेरे यहां रहने से बाहर चले गए। मुझे जाने क्यों नहीं दिया, वे यहां बैठते।'
'तेरे सामने बैठने में क्या उन्हें डर लगता था?'
'मेरी वजह से तो चले ही गए।'
'चले जाने दे, जा कहां सकते हैं, नकेल नथी हुई है। बावी, वे एक क्षण तो मेरे बिना रह नहीं सकते।'
यह कहते हुए युवती के नथने फूल गए,आंखों में मद छा गया।
बालिका ने सखी की ओर देखकर कहा--'सच कहना बहन, क्या