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४० :: अदल-बदल
 

जाएगी।' मायादेवी ने तिनककर कहा।

अवश्य हो जाएगी। जैसे पृथ्वी अपने ध्रुव पर स्थिर होकर घूमती है, उसी प्रकार घर के केन्द्र में स्त्री को स्थापित करके ही संसार-चक्र घूमता है। स्त्री घर की लक्ष्मी है। समाज उन्हीं पर अवलम्बित है। स्त्री केन्द्र से विचलित हुई तो समाज भी छिन्न- भिन्न हो जाएगा।'

'ऐसा नहीं हो सकता। जैसे पुरुष स्वतन्त्र भाव से घूम-फिर-कर घर लौट आता है, वैसे स्त्री भी लौट आ सकती है।'

'नहीं आ सकती। पुरुष देखना और जानना चाहता है, अपनाना नहीं। क्योंकि उसमें केवल ज्ञान है। परन्तु स्त्री वस्तु-संसर्ग में आकर उससे लिप्त हो जाती है, क्योंकि उसमें निष्ठा है।'

'क्यों?'

'क्योंकि नारी की प्रतिष्ठा प्राणों में है, पुरुष की विचारों में। नारी समाज का हृदय है, पुरुष समाज का मस्तिष्क। इसलिए नारी सक्रिय है, और पुरुष निष्क्रिय है? नारी केन्द्रमुखी शक्ति है, और पुरुष केन्द्रविमुख है। इसीसे नारी को केन्द्र बनाकर पुरुष-संघ बना है जो नारी के चारों ओर चक्कर काटता रहता है।

'पर जीवन की सामग्री पर नारी का अधिकार है, पुरुष का नहीं।'

'हां, किन्तु नारी की इसी शक्ति ने नारी को पुरुषों से बांध रखा है।'

'परन्तु अब नारी बन्धनमुक्त होकर रहेगी।'

'तो वह स्वयं नष्ट होकर संसार को और समाज के संगठन को भी नष्ट कर देगी।'

'ये सब पुरुषों के स्वार्थ की बातें हैं।'