'खैर, अब ज़रा अपना आध्यात्मिक दृष्टिकोण भी फरमा दीजिए।'
'यदि आध्यात्मिक दृष्टिकोण से देखा जाए तो आप स्वीकार करेंगी कि न प्रेम में स्वार्थ है, न काम में पाशविकता। पशु भाव की भावना से, काम में पाशविकता की और प्रेम के ऊपर स्वार्थ- परता की छाया पड़ गई है। पर देखने से इसमें त्याग की प्रति- मूर्ति के भी दर्शन हो सकते हैं।'
'खाक दर्शन हो सकते हैं, कमाल करते हैं आप सेठजी! खैर आप स्त्रियों की आर्थिक दासता के विषय में क्या कहते हैं ?'
'आर्थिक दासता से आपका क्या अभिप्राय है ?'
'अभिप्राय साफ है। पहले आप हिन्दू घरों की विधवाओं को ही लीजिए, चाहे वह किसी भी आयु की हों। जिस आसानी से मर्द पत्नी के मरने पर दुबारा ब्याह कर लेते हैं, उस आसानी से पति के मर जाने पर स्त्रियां व्याह नहीं कर पातीं, यह तो आप देखते ही हैं।'
'बेशक, परन्तु मायादेवी, इसमें सिर्फ लज्जा, समाज के धर्म ही का बन्धन नहीं है, और भी बहुत-सी बातें हैं।'
'और कौनसी बातें हैं ?
'पहली बात तो यह है कि जहां पुरुष ब्याहकर स्त्री को अपने घर ले आता है, वहां स्त्री ब्याह करके पति के घर आती है। ऐसी हालत में वह विधवा होकर यदि फिर ब्याह करना चाहे तो पति के परिवार से उसे कुछ भी सहायता और सहानुभूति की आशा नहीं रखनी चाहिए। रही पिता के परिवार की बात ! पहले तो माता-पिता लड़की की दुबारा शादी करना ही पाप समझते हैं, दूसरे, वे इसे अपने वंश की अप्रतिष्ठा भी समझते हैं। आम तौर पर यही खयाल किया जाता है नीच जाति में ही स्त्रियां दूसरा ब्याह करती हैं। यदि उनकी लड़की का दुवारा ब्याह कर दिया