जाएगा तो उनकी नाक कट जाएगी। तीसरे, वे ब्याह के समय 'कन्यादान' कर चुकते हैं और लड़की पर उनका तब कोई हक भी नहीं रह जाता। इसलिए यदि वे जब कभी ऐसा करने का साहस करते भी हैं तभी बहुधा पति के परिवार वाले विघ्न डालते हैं, क्योंकि इस काम में पिता के परिवार की अपेक्षा पति के परिवार वाले अधिक अपनी अप्रतिष्ठा समझते हैं।'
डाक्टर ने बीच ही में बात काटकर कहा---'इसका कारण यह है सेठजी, कि स्त्रियों की न कोई अपनी सामाजिक हस्ती है, न उनका कोई अधिकार है। न उन्हें कुछ कहने या आगे बढ़ने का साहस ही है। इन्हीं सब कारणों से हिन्दू घरों में खासकर उच्च परिवारों में स्त्रियां चाहे जैसी उम्र में विधवा हो जाएं, वे प्रायः ससुराल और पिता के घर में असहाय अवस्था ही में दिन काटती हैं।'
'यही बात है, जो मैं कहती हूँ'---मायादेवी ने उत्तेजित होकर कहा---'संयुक्त परिवार में पति की सम्पत्ति में से एक धेला भी नहीं मिल सकता। यदि वे उस परिवार के साथ रहें तो उन्हें रोटी-कपड़े का सहारा मात्र मिल सकता है। इस रोटी-कपड़े के सहारे का यह अर्थ है कि घरभर की सेवा-चाकरी करना, लांच्छना और तिरस्कार सहना, सब भांति के सुखों और जीवन के आनन्दों से वंचित रहना, सबसे पहले उठना और सबसे पीछे सोना, सबसे पीछे खराब-से-खराब खाना खाना, और सबसे खराब पहनना। यही उनकी मर्यादा है---इस मर्यादा से यदि वे तनिक भी चूकीं तो अपमान, तिरस्कार, और व्यंग से उनकी जान ले डालते हैं। प्रायः उन्हें अपनी देवरानियों में दासी की भांति रहना पड़ता है, जिनकी कभी वे मालिक रह चुकी होती हैं। उनकी आबरू और चरित्र पर दाग लगाना एक बहुत साधारण बात है। और इसके लिए उसे बहुत सावधान रहना पड़ता है। पति का मर जाना