उसपर लड़की ही का अधिकार हो---ससुराल वालों का तथा उसके पति का न हो। वह रकम एक पेडअप पालिसी की तौर पर इस भांति दी जाए कि उसे वह लड़की भी चाहे तो खुद खर्च न कर सके, न पति आदि के दबाव में पड़कर उसे दे सके। यह रकम ब्याज सहित उसे या तो ब्याह के वीस वर्ष बाद जब कि वह प्रौढ़ और समझदार हो जाए तब मिले, या फिर विधवा होने पर कुछ शर्तों के साथ---जिससे उस रकम का वह पूरा लाभ उठा सके और उसे कोई ठग न सके।'
मायादेवी ने समर्थन करते हुए कहा---'निस्संदेह ऐसा ही होना चाहिए।'
परन्तु सेठजी ने आपत्ति उठाई---'यह तो आप दहेज की प्रथा का समर्थन कर रहे हैं, जिसका विरोध सभी सुधारवादी करते हैं।'
'मैं स्वीकार करता हूं कि आजकल दहेज की प्रथा की ओर लोगों के विरोधी भाव पैदा हो गए हैं। परन्तु इसका कारण यह है कि दहेज की प्रथा के असली कारण को लोग नहीं समझ पाए हैं। दहेज को, पति या उसके ससुरालवाले अपनी बपौती समझते और उसे हड़प लेते हैं, जो वास्तव में अत्यन्त अनुचित है। दहेज की रकम वास्तव में लड़की की सम्पत्ति ही माननी चाहिए, उसी का उसपर अधिकार भी होना चाहिए।'
'यह भला कैसे हो सकता है?' सेठजी ने तर्क उठाया।
'क्यों नहीं हो सकता?' मायादेवी ने तपाक से कहा---'लड़कों की भांति क्या लड़कियां भी अपने माता-पिता की सन्तान नहीं हैं? उन्हें क्या माता-पिता की सम्पत्ति में हिस्सा न मिलना चाहिए? हिन्दू कानून में लड़की को पिता की सम्पत्ति में कुछ नहीं मिलता। सब पुत्र का ही होता है। इसलिए पिता के धन का कुछ भाग लड़की को दहेज के रूप में मिलना ही चाहिए। यह