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एक योगी की साप्ताहिक समाधि


चबूतरे के नीचे सीढ़ियों के पास पहुँचे, सारे पुजारी और पंडित उठकर कुछ दूर आगे बढ़े, और दोनो हाथ ऊपर उठाकर उन्होंने अभिवादन किया। परमहंसजी चबूतरे पर चढ़ आए। चबूतरे पर उनके चढ़ आने पर उपस्थित पुजारियों और पंडितों ने सिर झुकाकर उन्हें प्रणाम किया। परमहंसजी के पास एक डंडा था। उसके ऊपर त्रिशूल बना हुआ था। उसी के सहारे वह धीरे-धीरे चबूतरे के मध्य भाग की तरफ़ चले। उनकी चाल से मालूम होता था कि चलने में उन्हें तकलीफ़ हो रही है। चबूतरे के बीच में पहुँचकर परमहंसजी खड़े हो गए, और अपने झुके हुए शरीर को सीधा कर दिया। वह बिलकुल दिगंबर थे। सिर्फ़ कमर में एक छोटा-सा काषाय वस्त्र था। उनके सिर के बाल और दाढ़ी खूब लंबी थी। बाल बर्फ़ के सदृश सफेद थे। एक भी बाल काला न था; सिर छोटा था। आँखें आग की तरह जल रही थीं। वे भीतर घुस-सी गई थीं। जान पड़ता था, आँखों के गढ़ों के भीतर जलते हुए दो कोयले रक्खे हैं। ऐसा कृशांग आदमी मैंने तब तक न देखा था। योगिराज की देह की एक-एक हड्डी देख पड़ती थी। हाथ, पैर, छाती और पसलियों की हड्डियाँ मानो ऊपर ही रक्खी थीं। देखने से यही जान पड़ता था कि हड्डियों के ढेर के ऊपर काली त्वचा कसकर लपेट दी गई है। परमहंसजी का रूप महाभयानक था, पर चेहरा ख़ूब तेजःपुंज था। हाथ में त्रिशूल था; गले में बड़ी-बड़ी गुरियों की रुद्राक्ष-माला थी। वक्षःस्थल पर भस्म की तीन-तीन रेखाएँ थीं।