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पाताल-प्रविष्ट पांपियाई-नगर


बढ़ा रही थीं। हर सड़क के छोर पर छोटे-छोटे तालाब थे, जिनके किनारे भगवान् मरीचिमाली के उत्ताप को निवारण करने के लिये यदि कोई पथिक थोड़ी देर के लिये बैठ जाता था, तो उसके प्रानंद का पार न रहता था। जब लोग रंग-बिरंगे कपड़े पहने हुए किसी स्थान पर जमा होते थे, तब बड़ी चहल-पहल दिखाई देती थी।

कोई-कोई संगमरमर की चौकियों पर, जिन पर धूप से बचने के लिये पर्दे टँगे हुए थे, बैठे दिखाई पड़ते थे। उनके सामने सुसज्जित मेजों पर नाना प्रकार के स्वादिष्ट भोजन रक्खे जाया करते थे। गुलदस्तों से मेज़ें सजी रहती थीं। यह कहना अत्युक्ति न होगा कि वहाँ का छोटे-से-छोटा भी मकान सुसज्जित महलों का मान भंग करनेवाला था। वहाँ का झोपड़ा भी महल नहीं स्वर्ग था। यहाँ पर हम केवल एक ही मकान का थोड़ा-सा हाल लिखते हैं। उससे ज्ञात हो जायगा कि पांपियाई उस समय उन्नति के कितने ऊँचे शिखर पर आरूढ़ था। पांपियाई में घुसते ही एक मकान दृष्टिगोचर होता था। उसकी बाहरी दालान रमणीय खभों की पंक्ति पर सधी हुई थी। दालान के भीतर घुसने पर एक बड़ा लंबा-चौड़ा कमरा मिलता था। वह एक प्रकार का कोश-गृह था। उसमें लोग अपना-अपना बहुमूल्य सामान जमा करते थे। वह सामान लोहे और ताँबे के संदूक़ों में रक्खा रहता था। सिपाही चारो तरफ़ पहरा दिया करते थे। रोमन देवताओं की पूजा भी इसी में हुआ करती थी।