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पाताल-प्रविष्ट पांपियाई-नगर

इसके भी दर्शन कर लीजिए। इसकी भी सजावट अपूर्व थी। इसमें जो मेज़ें थीं, वे देवदारु की सुगंधित लकड़ी की थीं। उन पर चाँदी-सोने के तारों से तारकशी का काम था। सोने-चाँदी की रत्न-जटित कुर्सियाँ भी थीं। उन पर रेशमी झालरदार गद्दियाँ पड़ी हुई थीं। कभी-कभी मेहमान लोग इसमें भी भोजन करते थे। भोजनोपरांत वे चाँदी के बर्तनों में हाथ धोते थे। इसके बाद बहुमूल्य शराब, सोने के प्यालों में, उड़ती थी। पानोत्तर माली प्रसून-स्तवक मेहमानों को देता था, और सुमन-वर्षा होती थी। अंत में नृत्य प्रारंभ होता था। इसी गायन-वादन के मध्य में इत्र-पान होता था, और गुलाब-जल की वृष्टि होती थी। ये सब बातें अपनी हैसियत के मुताबिक़ सभी के यहाँ होती थीं। त्योहार पर तो सभी ऐसा करते थे।

एक दिन कोई त्योहार मनाया जा रहा था। वृद्ध, युवा, बालक, स्त्रियाँ, सभी आमोद-प्रमोद में मग्न थे। इतने में अंक-स्मात् विसूवियस से धुआँ निकलता दिखाई दिया। शनैः शनैः धुएँ का ग़ूबार बढ़ता गया। यहाँ तक कि तीन घंटे दिन रहे ही चारो ओर अंधकार छा गया। सावन-भादों की काली रात-सी हो गई। हाथ को हाथ न सूझ पड़ने लगा। लोग हाहाकार मचाने और त्राहि-त्राहि करने लगे। जान पड़ा कि प्रलय आ गया। जहाँ पहले धुआँ निकलना शुरू हुआ था, वहाँ से चिनगारियाँ निकलने लगीं। लोग भागने लगे। परंतु भागकर जाते भी तो कहाँ? ऐसे समय में निकल भागना नितांत असंभव था।