अँधेरा ऐसा घनघोर था कि भाई बहन से, स्त्री पति से, मा बच्चों से बिछुड़ गई। हवा बड़े वेग से चलने लगी। भूकंप हुआ। मकान धड़ाधड़ गिरने लगे। समुद्र में चालीस-चालीस गज़ ऊँची लहरें उठने लगीं। वायु भी गर्म मालूम होने लगी, और धुआँ इतना भर गया कि लोगों का दम घुटने लगा। इस महाघोर संकट से बचने के लिये लोग ईश्वर से प्रार्थना करने लगे। पर सब व्यर्थ हआ।
कुछ देर में पत्थरों की वर्षा होने लगी, और जैसे भादों में गंगाजी उमड़ चलती हैं, वैसे ही गरम पानी की तरह पिघली हुई चीज़ें ज्वालामुखी पर्वत से बह निकलीं। उन्होंने पांपियाई का सर्वनाश आरंभ कर दिया। मेहमान भोजन-गृह में, स्त्री पति के साथ, सिपाही अपने पहरे पर, क़ैदी क़ैदखाने में, बच्चे पालने में, दूकानदार तराज़ू हाथ में लिए ही रह गए। जो मनुष्य जिस दशा में था, वह उसी दशा में रह गया।
मुद्दत बाद, शांति होने पर, अन्य नगर-निवासियों ने वहाँ आकर देखा, तो सिवा राख के ढेर के और कुछ न पाया। वह राख का ढेर खाली ढेर न था; उसके नीचे हज़ारों मनुष्य अपनी जीवन-यात्रा पूरी करके सदैव के लिये सो गए थे।
हाय, किस-किसके लिये कोई अश्रु-पात करे! यह दुर्घटना २३ अगस्त, ७९ ईस्वी की है। १९४५ वर्ष बाद जो यह जगह खोदी गई, तो जो वस्तु जहाँ थी, वहीं मिली।
यह प्रायः सारा-का-सारा शहर पृथ्वी के पेट से खोद निकाला