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पृष्ठ:अद्भुत आलाप.djvu/१५०

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अद्भुत आलाप


पता-ठिकाना नहीं। खेतों का बीच। मैंने समझा, इस अवस्था में आगे बढ़ना मुश्किल है। सो, मैंने अपनी रफ़ल उठाकर अपने कंधे पर रक्खी, और जोर से आवाज दी---"वे हिले-डुले ख़ामोश, अपनी जगह पर खड़ा रह; नहीं मैं तुझ पर गोली छोड़ता हूँ।" मुश्किल से मेरे मुँह से ये शब्द निकले होंगे कि मुझे बेतरह खौफ़ मालूम हुआ। इसलिये कि जो आदमी अभी तक मेरी तरफ़ वेग से दौड़ता हुआ आता मालूम होता था, और मुझसे कुछ ही गज़ के फ़ासले पर था, वह आदमी ही न था। वह आदमी की अस्थिमय खोपड़ी-मात्र थी। आँखों की जगह उसमें सिर्फ आँखों के गढ़े थे। एक हाथ भी था; पर उसे हाथ नहीं, हाथ की ठठरी कहना चाहिए। उसी से वह मशाल थामे था। उसके शेष अंग धुँधले धुँधले धुएँ-से मालूम होते थे। उनकी हड्डियाँ भी न देख पड़ती थीं।

मैं वहीं पर ठहरा रहा। मेरी उँगली रफ़ल के घोड़े पर थी। वह प्रेत उस समय मुझसे सिर्फ़ १० या १५ फीट पर होगा। अब क्या हुआ कि वह सहसा एक तरफ़ को मुड़ा, और मुझसे कोई बीस फ़ीट पर, पलक मारते-मारते, जमीन के भीतर घुस गया। वह उस समय मेरे बहुत निकट था। इससे मैं उसे अच्छी तरह देख सका। उसके ज़मीन में लोप होते ही मैं उस जगह दौड़ गया। पर वहाँ मुझे उसका कुछ भी पता न मिला। मैंने उस जगह ज़ोर से लात मारी। पर वहाँ क्या था ? था सिर्फ़ मशाल की लाल-लाल जलती हुई आग का कुछ अंश। मैंने उसे हाथ