पृष्ठ:अनासक्तियोग.djvu/१०५

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आत्मौपम्येन सर्वत्र समं पश्यति योऽर्जुन । सुखं वा यदि वा दुःखं स योगी परमो मतः ॥३२॥ हे अर्जुन ! जो मनुष्य अपने जैसा सबको देखता है और सुख हो या दुःख, दोनोंको समान समझता है, वह योगी श्रेष्ठ गिना जाता है । ३२ पर्जुन उवाच योऽयं योगस्त्वया प्रोक्तः साम्येन मधुसूदन । एतस्याहं न पश्यामि चञ्चलत्वात्स्थिति स्थिराम् ॥३३॥ अर्जुन बोले- हे मधुसूदन ! यह (समत्वरूपी) योग जो आपने कहा, उसकी स्थिरता में चंचलताके कारण नहीं देख पाता। ३३ चञ्चल हि मनः कृष्ण प्रमाथि बलवदृढम् । तस्याहं निग्रहं मन्ये वायोरिव सुदुष्करम् ॥३४॥ क्योंकि हे कृष्ण ! मन चंचल ही है, मनुष्यको मथ डालता है और बड़ा बलवान है। जैसे वायुको दबाना बहुत कठिन है वैसे मनका वश करना भी मैं कठिन मानता हूं। ३४