पृष्ठ:अनासक्तियोग.djvu/११२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

अनासक्तियोल ७ प्रणवः ८ हे धनंजय ! मुझसे उच्च दूसरा कुछ नहीं है। जैसे धागेमें मनके पिरोये हुए रहते हैं वैसे यह सब मुझमें पिरोया हुआ है। रसोऽहमप्सु कौन्तेय प्रभास्मि शशिसूर्ययोः । सर्ववेदेषु शब्दः खे पौरुषं नृषु ॥८॥ हे कौंतेय ! जलमें रस मैं हूं, सूर्य-चंद्रमें तेज मैं हूं; सब वेदोंमें ओंकार मैं हूं, आकाशमें शब्द मैं हूं और पुरुषोंका पराक्रम मैं हूं। पुण्योगन्धः पृथिव्या च तेजश्चास्मि विभावसौ। जीवनं सर्वभूतेषु तपश्चास्मि तपस्विषु ॥९॥ पृथ्वीमें सुगंध मैं हूं, अग्निमें तेज मैं हूं, प्राणीमात्र- का जीवन मैं हूं, तपस्वीका तप मैं हूं। बीजं मां सर्वभूतानां विद्धि पार्थ सनातनम् । बुद्धिबुद्धिमतामस्मि तेजस्तेजस्विनामहम् ॥१०॥ हे पार्थ ! समस्त जीवोंका सनातन बीज मुझे जान। बुद्धिमानकी बुद्धि मैं हूं, तेजस्वीका तेज मैं हूं। १० बलं बलबतां चाहं कामरागविवजितम् । धर्माविरुद्धो भूतेषु कामोऽस्मि भरतर्षभ ।।११।। बलवानका काम और रागरहित बल मैं हूं और हे भरतर्षभ ! प्राणियोंमें धर्मका अविरोधी काम P मैं हूं। hico