पृष्ठ:अनासक्तियोग.djvu/११३

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सातवां मध्याय :मालविकानयोग . ये चैव सात्त्विका भावा राजसास्तामसाश्च ये। मत्त एवेति तान्विद्धि न त्वहं तेषु ते मयि ॥१२॥ जो-जो सात्विक, राजसी और तामसी भाव हैं, उन्हें मुझसे उत्पन्न हुआ जान । परंतु मैं उनमें हूं, ऐसा नहीं है, वे मुझमें हैं। १२ टिप्पखी-इन भावोंपर परमात्मा निर्भर नहीं है, बल्कि वे भाव उसपर निर्भर हैं। उसके आधारपर हैं, रहते हैं और उसके वशमें हैं। त्रिभिर्गुणमयैर्भावरेभिः सर्वमिदं जगत् । मोहितं नाभिजानाति मामेभ्यः परमव्ययम् ॥१३॥ इन त्रिगुणी भावोंसे सारा संसार मोहित हो रहा है और इसलिए उनसे उच्च और भिन्न ऐसे मुझको- अविनाशीको--वह नहीं पहचानता। १३ दैवी ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्यया । मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते ॥१४॥ इस मेरी तीन गुणोंवाली दैवी मायाका तरना कठिन है; पर जो मेरी ही शरण लेते हैं वे इस माया- को तर जाते हैं। न मां दुष्कृतिनो मूढाः प्रपद्यन्ते नराधमाः । माययापहृतज्ञाना आसुरं भावमाश्रिताः ॥१५॥ दुराचारी, मूढ़, अधम मनुष्य मेरी शरण नहीं