पृष्ठ:अनासक्तियोग.djvu/११४

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मनासक्तियोग आते। वे आसुरीभाववाले होते हैं और मायाद्वारा उनका ज्ञान हरा हुआ होता है। चतुर्विधा भजन्ते मां जनाः सुकृतिनोऽर्जुन । आता जिज्ञासुरर्थार्थी ज्ञानी च भरतर्षभ ॥१६॥ हे अर्जुन ! चार प्रकारके सदाचारी मनुष्य मुझे भजते हैं-दुःखी, जिज्ञासु, कुछ प्राप्तिकी इच्छावाले और ज्ञानी। १६ तेषां ज्ञानी नित्ययुक्त एकभक्तिविशिष्यते । प्रियो हि ज्ञानिनोऽत्यर्थमहं स च मम प्रियः ।।१७।। उनमें जो नित्य समभावी एकको ही भजनेवाला है, वह ज्ञानी श्रेष्ठ है । मैं ज्ञानीको अत्यंत प्रिय हूं और ज्ञानी मुझे प्रिय है । सर्व एवैते ज्ञानी त्वात्मैव मे मतम् आस्थितः स हि युक्तात्मा मामेवानुत्तमा गतिम् ॥१८॥ ये सभी भक्त अच्छे हैं, पर ज्ञानी तो मेरा आत्मा ही है, ऐसा मेरा मत है; क्योंकि मुझे पानेके सिवा दूसरी अधिक उत्तम गति है ही नहीं, यह जानता हुना वह योगी मेरा ही आश्रय लेता है। १० बहूनां जन्मनामन्ते शानवान्मां प्रपद्यते । वासुदेवः सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभः ॥१९॥ 8 उदाराः