पृष्ठ:अनासक्तियोग.djvu/११५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

सातवां अध्याय :मानविज्ञानयोग १०१ बहुत जन्मोंके अंतमें ज्ञानी मुझे पाता है। सब वासु- देवमय है, यों जाननेवाला महात्मा बहुत दुर्लभ है। १९ कामैस्तैस्तैर्हतज्ञानाः प्रपद्यन्तेऽन्यदेवताः । तं तं नियममास्थाय प्रकृत्या नियताः स्वया ॥२०॥ अनेक कामनाओंसे जिन लोगोंका ज्ञान हरा गया है, वे अपनी प्रकृतिके अनुसार भिन्न-भिन्न विधिका आश्रय लेकर दूसरे देवताओंकी शरण जाते हैं। २० यो यो यां यां तनुं भक्तः श्रद्धयाचितुमिच्छति । तस्य तस्याचलां श्रद्धां तामेव विदधाम्यहम् ॥२१॥ जो-जो मनुष्य जिस-जिस स्वरूपकी भक्ति श्रद्धा- पुर्वक करना चाहता है, उस-उस स्वरूपमें उसकी श्रद्धाको मैं दृढ़ करता हूं। २१ स तया श्रद्धया युक्तस्तस्याराघनमीहते । लभते च ततः कामान्मयैव विहितान्हि तान् ॥२२॥ श्रद्धापूर्वक उस-उस स्वरूपकी वह आराधना करता है और उसके द्वारा मेरी निर्मित की हुई और अपनी इच्छित कामनाएं पूरी करता है। २२ तेषां तद्भवत्यल्पमेधसाम् । देवान्देवयजो यान्ति मद्भक्ता यान्ति मामपि ॥२३॥ उन अल्प बुद्धिवालोंको जो फल मिलता है वह नाशवान होता है। देवताओंको भजनेवाले देवताओंको अन्तवत्तु फलं