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पृष्ठ:अनासक्तियोग.djvu/११७

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सातवां अध्याय:मानविज्ञानयोग २७ हे भारत ! हे परंतप ! इच्छा और द्वेषसे उत्पन्न होनेवाले सुख-दुःखादि द्वंद्वके मोहसे प्राणीमात्र इस जगतमें मोहग्रस्त रहते हैं। येषां त्वन्तगतं पापं जनानां पुण्यकर्मणाम् । ते द्वन्द्वमोहनिर्मुक्ता भजन्ते मां दृढव्रताः ॥२८॥ पर जिन सदाचारी लोगोंके पापोंका अंत हो चुका है और जो द्वंद्वके मोहसे मुक्त हो गये हैं वे अटल व्रतवाले मुझे भजते हैं। २८ जरामरणमोक्षाय मामाश्रित्य यतन्ति ये । ते ब्रह्म तद्विदुः कृत्स्नमध्यात्म कर्म चाखिलम् ॥२९॥ जो मेरा आश्रय लेकर जरा और मरणसे मुक्त होनेका प्रयत्न करते हैं वे पूर्णब्रह्मको, अध्यात्मको और अखिल कर्मको जानते हैं। २९ साधिभूताधिदैव मां साधियज्ञं च ये विदुः । प्रयाणकालेऽपि च मां ते विदुर्युक्तचेतसः ॥३०॥ अधिभूत, अधिदैव और अधियज्ञयुक्त मुझे जिन्हों- ने पहचाना है, वे समत्वको पाये हुए मुझे मृत्युके समय भी पहचानते हैं। टिप्पणी-अधिभूतादिका अर्थ आठवें अध्यायमें आता है। इस श्लोकका तात्पर्य यह है कि इस संसारमें ईश्वरके सिवा और कुछ भी नहीं है और