सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:अनासक्तियोग.djvu/१२९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

अप्राप्य नवा पध्याय : राबविचाराणनयोग युक्त ज्ञान दूंगा, जिसे जानकर तू अकल्याणसे बचेगा। १ राजविद्या राजगुह्यं पवित्रमिदमुत्तमम् । प्रत्यक्षावगमं धयं सुसुखं कर्तुमव्ययम् ॥ २॥ विद्याओंमें यह राजा है गूढ़ वस्तुओंमें भी राजा है। यह विद्या पवित्र है, उत्तम है, प्रत्यक्ष अनुभवमें आने योग्य, धार्मिक, आचारमें लानेमें सहज और अवि नाशी है। २ अश्रद्दधानाः पुरुषा धर्मस्यास्य परंतप । मां निवर्तन्ते मृत्युसंसारवर्त्मनि ।। ३ ।। हे परंतप ! इस धर्ममें जिन्हें श्रद्धा नहीं है, ऐसे लोग मुझे न पाकर मृत्युमय संसार-मार्गमें बारंबार ठोकर खाते हैं। ३ मया ततमिदं सर्व जगदव्यक्तमूर्तिना। मत्स्थानि सर्वभूतानि न चाहं तेष्ववस्थितः ॥ ४ ॥ मेरे अव्यक्त स्वरूपसे यह समूचा जगत भरा हुआ है। मुझमें-मेरे आधारपर-सब प्राणी हैं, मैं उनके आधारपर नहीं हूं। न च मत्स्थानि भूतानि पश्य मे योगमैश्वरम् । भूतभन्न च भूतस्थो ममात्मा भूतभावनः ।। ५ ॥ तथापि प्राणी मुझमें नहीं हैं ऐसा भो कहा जा सकता है । यह मेरा योगबल तू देख । मैं जीवोंका