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पृष्ठ:अनासक्तियोग.djvu/१८०

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अनासक्तियोग एकनिष्ठ भक्ति, एकांत स्थानका सेवन, जनसमूहमें सम्मिलित होनेकी अरुचि,आध्यात्मिक ज्ञानकी नित्यता- का भान और आत्मदर्शन--यह सब ज्ञान कहलाता है। इससे जो उलटा है वह अज्ञान है । ७-८-९-१०-११ ज्ञेयं यत्तत्प्रवक्ष्यामि यज्ज्ञात्वामृतमश्नुते । अनादिमत्पर ब्रह्म न सत्तन्नासदुच्यते ॥१२॥ जिसे जाननेवाले मोक्ष पाते हैं वह ज्ञेय क्या है, सो तुझसे कहूंगा। वह अनादि परब्रह्म है, वह न सत् कहा जा सकता है न असत् कहा जा सकता है । १२ टिप्पी-परमेश्वरको सत् या असत् भी नहीं कहा जा सकता। किसी एक शब्दसे उसकी व्याख्या या परिचय नहीं हो सकता, ऐसा वह गुणातीत स्वरूप है। सर्वतःपाणिपादं तत्सर्वतोऽक्षिशिरोमुखम् । सर्वतःश्रुतिमल्लोके सर्वमावृत्य तिष्ठति ॥१३॥ जहां देखो वहीं उसके हाथ, पैर, आंखें, सिर, मुंह और कान हैं। सर्वत्र व्याप्त होकर वह इस लोकमें विद्यमान है। सर्वेन्द्रियगुणाभासं सर्वेन्द्रियविवर्जितम् । असक्तं सर्वभृच्चैव निर्गुणं गुणभोक्तृ च ॥१४॥ सब इंद्रियोंके गुणोंका आभास उसमें मिलता है तो भी वह स्वरूप इंद्रियरहित और सबसे अलिप्त है,