और शानसे जो प्राप्त होता है वह भी वही है । वह सबके हृदयमें मौजूद है। १७ इति क्षेत्र तथा ज्ञानं ज्ञेयं चोक्तं समासतः । मद्भक्त एतद्विज्ञाय मद्भावायोपपद्यते ॥१८॥ इस प्रकार क्षेत्र, ज्ञान और ज्ञेयके विषयमें मैंने संक्षेपमें बतलाया। इसे जानकर मेरा भक्त मेरे भाव- को पाने योग्य बनता है। १८ प्रकृति पुरुषं चैव विद्धधनादी उभावपि । विकारांश्च गुणांश्चैव विद्धि प्रकृतिसंभवान् ॥१९॥ प्रकृति और पुरुष दोनोंको अनादि जान । विकार और गुणोंको प्रकृतिसे उत्पन्न हुआ जान । १९ कार्यकरणकर्तृत्वे हेतु: प्रकृतिरुच्यते । पुरुषः सुखदुःखानां भोक्तृत्वे हेतुरुच्यते ॥२०॥ कार्य और कारणका हेतु प्रकृति कही जाती है और पुरुष सुख-दुःखके भोगमें हेतु कहा जाता है । २० पुरुषःप्रकृतिस्थो हि भुङ्क्ते प्रकृतिजान्गुणान् । कारणं गुणसङ्गोऽस्य सदसद्योनिजन्मसु ॥२१॥ प्रकृतिमें रहनेवाला पुरुष प्रकृतिसे उत्पन्न होनेवाले गुणोंको भोगता है और यह गुणसंग भली-बुरी योनिमें उसके जन्मका कारण बनता है। टिप्पणी-प्रकृतिको हम लोग लौकिक भाषामें
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