पृष्ठ:अनासक्तियोग.djvu/१८४

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अंतर्यामीको चौबीसों घंटे पहचान रहा है वह पापकर्म कर ही नहीं सकता। पापका मूल ही अभिमान है। जहां मैं नहीं है वहां पाप नहीं है । यह श्लोक पापकर्म न करनेकी युक्ति बतलाता है। ध्यानेनात्मनि पश्यन्ति केचिदात्मानमात्मना । अन्ये सांख्येन योगेन कर्मयोगेन चापरे ॥२४।। कोई ध्यानमार्गसे आत्माद्वारा आत्माको अपने में देखता है; कितने ही ज्ञानमार्गसे और दूसरे कितने ही कर्ममार्गसे। २४ अन्ये त्वेवमजानन्तः श्रुत्वान्येभ्य उपासते । तेऽपि चातितरन्त्येव मृत्यं श्रुतिपरायणाः ॥२५॥ और कोई इन मार्गोको न जाननेके कारण दूसरोंसे परमात्माके विषयमें सुनकर, सुने हुएपर श्रद्धा रखकर और उसमें परायण रहकर उपासना करते हैं और वे भी मृत्युको तर जाते हैं। २५ यावत्संजायते किंचित्सत्त्वं स्थावरजङ्गमम् । क्षेत्रक्षेत्रज्ञसंयोगात्तद्विद्धि भरतर्षभ ॥२६॥ जो कुछ चर या अचर वस्तु उत्पन्न होती है वह हे भरतर्षभ ! क्षेत्र और क्षेत्रज्ञके अर्थात् प्रकृति और पुरुषके संयोगसे उत्पन्न हुई जान ।