पृष्ठ:अनासक्तियोग.djvu/१९९

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हमा मन्मयतमयोग न हों तो वह शोभा नहीं दे सकता। इस प्रकार संसार- का यथार्थ ज्ञान जिसे है और जो धर्मको जाननेवाला है वह ज्ञानी है। अधश्चोर्ध्व प्रसृतास्तस्य शाखा गुणप्रवृद्धा विषयप्रवालाः । अधश्च मूलान्यनुसंततानि कर्मानुबन्धीनि मनुष्यलोके ॥२॥ गुणोंके स्पर्शद्वारा बढ़ी हुई और विषयरूपी कोपलों- वाली उस अश्वत्थकी डालियां नीचे-ऊपर फैली हुई- हैं; कर्मोंका बंधन करनेवाली उसकी जड़ें मनुष्यलोकमें नीचे फैली हुई हैं। २ टिप्पनी—यह संसारवृक्षका अज्ञानीकी दृष्टिवाला वर्णन है। उसके ऊंचे ईश्वरमें रहनेवाले मूलको वह नहीं देखता, बल्कि विषयोंकी रमणीयतापर मुग्ध रह- कर, तीनों गुणोंद्वारा इस वृक्षका पोषण करता है और मनुष्यलोकमें कर्मपाशमें बंधा हुआ रहता है । न रूपमस्येह तथोपलभ्यते नान्तो न चादिनच संप्रतिष्ठा । अश्वत्थमेनं सुविरूढमूल- मसङ्गशस्त्रेण दृढेन ततः पदं तत्परिमार्जितव्यं मस्मिन्गता न निवर्तन्ति भूयः । छिस्था ॥३॥