सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:अनासक्तियोग.djvu/२१३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

समाको प्रयासमाधिमानयोग

१७

श्रद्धात्रयविभागयोग शास्त्र अर्थात् शिष्टाचारको प्रमाण मानना चाहिए, यह सुनकर अर्जुनको शंका हुई कि जो शिष्टाचारको न मान सके; पर श्रद्धापूर्वक आचरण करे उसकी कैसी गति होती है । इस अध्यायमें इसका उत्तर देनेका प्रयत्न है; परंतु शिष्टा- चाररूपी दीपस्तंभ छोड़ देनेके बादकी श्रद्धा भयोंकी संभावना बतलाकर भगवानने संतोष माना है। इसलिए श्रद्धा और उसके आधारपर होनेवाले यज्ञ, तप, दान आदिके गुणानुसार तीन भाग करके दिखाये हैं और 'ॐ तत्सत्' की महिमा गाई है। भर्जन उवाच ये शास्त्रविधिमुत्सृज्य यजन्ते श्रद्धयान्विताः । तेषां निष्ठातु का कृष्ण सत्त्वमाहो रजस्तमः ॥१॥ अर्जुन बोले- - हे कृष्ण ! शास्त्रविधि अर्थात् शिष्टाचारकी परवा न कर जो केवल श्रद्धासे ही पूजादि करते हैं उनकी गति कैसी होती है ?--सात्विक, राजसी वा तामसी ? १