पृष्ठ:अनासक्तियोग.djvu/२३८

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२२४ मसावतियोग

इति ते ज्ञानमाख्यातं गुह्याद्गुह्यतरं मया । विमृश्यैतदशेषेण यथेच्छसि तथा कुरु ॥६३॥ इस प्रकार गुह्य-से-गुह्य ज्ञान मैंने तुझसे कहा । इस सारेका भलीभांति विचार करके तुझे जो अच्छा लगे सो कर। सर्वगुह्यतमं भूयः शृणु मे परमं वचः इष्टोऽसि मे दृढमिति ततो वक्ष्यामि ते हितम् ॥६४॥ और सबसे भी गुह्य ऐसा मेरा परमवचन सुन । तू मुझे बहुत प्रिय है, इसलिए मैं तुझसे तेरा हित कहूंगा। मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु । मामेवैष्यसि सत्यं ते प्रतिजाने प्रियोऽसि मे ॥६५॥ मुझसे लगन लगा, मेरा भक्त बन, मेरे लिए यज्ञ कर, मुझे नमस्कार कर । तू मुझे ही प्राप्त करेगा, यह मेरी सत्य प्रतिज्ञा है। तू मुझे प्रिय है। सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज । अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः ॥६६॥ सब धर्मोंका त्याग करके एक मेरी ही शरण ले मैं तुझे सब पापोंसे मुक्त करूंगा। शोक मत कर। ६६ इदं ते नातपस्काय नाभक्ताय कदाचन । न चाशुश्रूषवे वाच्यं न च मां योऽभ्यसूयति ॥६७।।