पृष्ठ:अनासक्तियोग.djvu/४६

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अनासक्तियोग यततो ह्यपि कौन्तेय पुरुषस्थ विपश्चितः । इन्द्रियाणि प्रमाथीनि हरन्ति प्रसभं मन. ॥६॥ हे कौंतेय ! चतुर पुरुषके उद्योग करते रहनेपर भी इद्रियां ऐसी प्रमथनशील हैं कि उसके मनको भी बलात्कारसे कर लेती है। तानि सर्वाणि संयम्य युक्त आसीत मत्परः । वशे हि यस्येन्द्रियाणि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ॥६॥ इन सब इंद्रियोंको वशमें रखकर योगीको मुझमें तन्मय हो रहना चाहिए; क्योंकि अपनी इंद्रियां जिसके वशमे है, उसकी बुद्धि स्थिर है। टिप्पणी--तात्पर्य, भक्तिके बिना--ईश्वरकी सहायताके बिना---मनुष्यका प्रयत्न मिथ्या है। ध्यायतो विषयान्पुस. सङ्गस्तेषूपजायते । सङ्गात्संजायते काम. कामात्क्रोधोऽभिजायते ॥६२।। विषयोंका चितन करनेवाले पुरुषको उनमे आसक्ति उत्पन्न होती है, आसक्तिमेसे कामना होती है और कामनामेंसे क्रोध उत्पन्न होता है। ६२ टिप्पणी-कामनाबालके लिए क्रोध अनिवार्य है। क्योंकि काम कभी तृप्त होता ही नही । क्रोधाद्भवति समोहः समोहात्स्मृतिविभ्रमः । स्मृतिभ्रंशाद्बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति ॥६३॥