सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:अनासक्तियोग.djvu/४७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

दूसरा समय : सांपयोग क्रोधसे मूढ़ता उत्पन्न होती है, मूढ़तासे स्मृति भ्रांत हो जाती है, स्मृति भ्रांत होनेसे ज्ञानका नाश हो जाता है और जिसका ज्ञान नष्ट हो गया वह मृतक- तुल्य है। रागद्वेषवियुक्तस्तु विषयानिन्द्रियश्चरन् । आत्मवश्यविधेयात्मा प्रसादमधिगच्छति ॥६४।। परंतु जिसका मन अपने अधिकारमें है और जिसकी इंद्रियां रागद्वेषरहित होकर उसके वशमें रहती हैं, वह मनुष्य इंद्रियोंका व्यापार चलाते हुए भी चित्तकी प्रसन्नता प्राप्त करता है। ६४ प्रसादे सर्वदुःखानां हानिरस्योपजायते । प्रसन्नचेतसो ह्याशु बुद्धिः पर्यवतिष्ठते ॥६५।। चित्तकी प्रसन्नतासे उसके सब दुःख दूर हो जाते हैं और प्रसन्नता प्राप्त हो जानेवालेकी बुद्धि तुरंत ही स्थिर हो जाती है। नास्ति बुद्धिरयुक्तस्य न चायुक्तस्य भावना । न चाभावयतः शान्तिरशान्तस्य कुतः सुखम् ॥६६॥ जिसे समत्व नहीं, उसे विवेक नहीं, उसे भक्ति नहीं और जिसे भक्ति नहीं उसे शांति नहीं है । और जहां शांति नहीं, वहां सुख कहांसे हो सकता