पृष्ठ:अनासक्तियोग.djvu/५५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

तीसरामयाब : कर्मयोग

इस लोकमें बंधन पैदा होता है। इसलिए हे कौंतेय ! तू रागरहित होकर यज्ञार्थ कर्म कर । ९ टिप्पनी-यज्ञ अर्थात् परोपकारार्थ, ईश्वरार्थ किये हुए कर्म । सह्यज्ञाः प्रजाः सृष्ट्वा पुरोवाच प्रजापतिः । अनेन प्रसविष्यध्वमेष वोऽस्त्विष्टकामधुक् ॥१०॥ यज्ञके सहित प्रजाको उत्पन्न करके प्रजापति ब्रह्मा- ने कहा, "यज्ञद्वारा तुम्हारी वृद्धि हो। यह तुम्हें इच्छित फल दे। १० देवान्भावयतानेन ते देवा भावयन्तु वः । परस्परं भावयन्तः श्रेयः परमवाप्स्यथ ॥११॥ "तुम यज्ञद्वारा देवताओंका पोषण करो और देवता तुम्हारा पोषण करें और एक-दूसरेका पोषण करके तुम परम कल्याणको पाओ। इष्टान्भोगान्हि वो देवा दास्यन्ते यज्ञभाविताः । तैर्दत्तानप्रदायभ्यो यो भुक्ते स्तेन एव सः ॥१२॥ "यज्ञद्वारा संतुष्ट हुए देवता तुम्हें इच्छित भोग देंगे। उनका बदला दिये बिना, उनका दिया हुआ जो भोगेगा वह अवश्य चोर है।" १२ टिप्पणी-यहां देवका अर्थ है भूतमात्र, ईश्वरकी सृष्टि । भूतमात्रकी सेवा देव-सेवा है और वह यज्ञ है।