सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:अनासक्तियोग.djvu/६१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

तोसरापण्याप: कर्मयोग अनासक्ति अभ्यास और ईश्वरकृपासे ही प्राप्त होती है। प्रकृतेर्गुणसंमूढाः सज्जन्ते गुणकर्मसु । तानकृत्स्नविदो मन्दान्कृत्स्नविन्न विचालयेत् ॥२९॥ प्रकृतिके गुणोंसे मोहे हुए मनुष्य गुणोंके कर्मोंमें आसक्त रहते हैं। ज्ञानियोंको चाहिए कि वे इन अज्ञानी मंदबुद्धि लोगोंको अस्थिर न करें। २९ मयि सर्वाणि कर्माणि संन्यस्याध्यात्मचेतसा । निराशीनिर्ममो भूत्वा युध्यस्व विगतज्वरः ॥३०॥ अध्यात्मवृत्ति रखकर, सब कर्म मुझे अर्पण करके, आसक्ति और ममत्वको छोड़, रागरहित होकर तू ३० टिप्पणी--जो देहमें विद्यमान आत्माको पह- चानता और उसे परमात्माका अंश जानता है वह सब परमात्माको ही अर्पण करेगा, वैसे ही, जैसे कि नौकर मालिकके नामपर काम करता है और सब कुछ उसीको अर्पण करता है। ये मे मतमिदं नित्यमनुतिष्ठन्ति मानवाः । श्रद्धावन्तोऽनसूयन्तो मुच्यन्ते तेऽपि कर्मभिः ॥३१॥ श्रद्धा रखकर, द्वेष छोड़कर जो, मनुष्य मेरे इस मतके अनुसार चलते हैं, वे भी कर्मबंधनसे छूट जाते युद्ध कर।