पृष्ठ:अनासक्तियोग.djvu/६२

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अनासक्तियोग + . ये त्वेतदभ्यसूयन्तो नानुतिष्ठन्ति मे मतम् । सर्वज्ञानविमूढांस्तान्विद्धि नष्टानचेतसः ॥३२॥ परंतु जो मेरे इस अभिप्रायमें दोष निकालकर उसका अनुसरण नही करते, वे ज्ञानहीन मूर्ख हैं। उनका नाश हुआ समझ । ३२ सदृशं चेष्टते स्वस्याः प्रकृतेर्ज्ञानवानपि । प्रकृति यान्ति भूतानि निग्रहः किं करिष्यति ॥३३॥ ज्ञानी भी अपने स्वभावके अनुसार बरतते हैं, प्राणीमात्र अपने स्वभावका अनुसरण करते हैं, बहां बलात्कार क्या कर सकता है ? ३३ टिप्पणी--यह श्लोक दूसरे अध्यायके ६१वें या ६८वें श्लोकका विरोधी नहीं है। इंद्रियोंका निग्रह करते-करते मनुष्यको मर मिटना है, लेकिन फिर भी सफलता न मिले तो निग्रह अर्थात् बलात्कार निरर्थक है। इसमें निग्रहकी निंदा नही की गई है, स्वभावका साम्राज्य दिखाया गया है । यह तो मेरा स्वभाव है, यह कहकर कोई खोटाई करने लगे तो वह इस श्लोकका अर्थ नही समझता । स्वभावका हमें पता नही चलता। जितनी आदतें हैं सब स्वभाव नहीं हैं। आत्माका स्वभाव ऊर्ध्वगमन है। अतः आत्मा जब नीचेकी ओर जाय तब उसका प्रतिकार