सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:अनासक्तियोग.djvu/६३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

तीसरा-मयाब: कर्मयोग करना कर्तव्य है। इसीसे नीचेका श्लोक स्पष्ट करता इन्द्रियस्येन्द्रियस्यार्थे रागद्वेषो व्यवस्थिती। तयोर्न वशमागच्छेत्तो ह्यस्य परिपन्थिनौ ॥३४।। अपने-अपने विषयोंके संबंधमें इंद्रियोंको रागद्वेष रहता ही है। मनुष्यको उनके वश न होना चाहिए, क्योंकि वे मनुष्यके मार्गके बाधक हैं। टिप्पणी-कानका विषय है सुनना । जो भावे वह सुननेकी इच्छा राग है । जो न भावे वह सुननेकी अनिच्छा द्वेष है। यह तो स्वभाव है' कहकर राग- द्वेषके वश नहीं होना चाहिए, उनका मुकाबला करना चाहिए। आत्माका स्वभाव अछूते रहना है। उस स्वभावतक मनुष्यको पहुं- चना है। श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात् । स्वधर्म निधन श्रेयः परधर्मो भयावहः ॥३५॥ पराये धर्मके सुलभ होनेपर भी उससे अपना धर्म विगुण हो तो भी अधिक अच्छा है। स्वधर्ममें मृत्यु भली है। परधर्म भयावह है। ३५ . टिप्पनी-समाजमें एकका धर्म झाडू देनेका होता है और दूसरेका धर्म हिसाब रखनेका होता है । सुख-दुःखसे ४